Taking birth as human
जिज्ञासा :मनुष्य-योनि कर्म करने एवं फल पाने, भोग भोगने हेतु है। पशु-पक्षी-योनि केवल भोग-भोगने हेतु है। भावी जन्मों में फलभोग केवल पूर्व मनुष्य योनि के किये कर्मों का बकाया फल ही है, पशु-पक्षी योनि के कर्मों का फल नहीं। फिर ऐसा यों कहा जाता है कि इस जन्म में जो मनुष्य जन्म से क्रूर-क्रोधी है तो यह पूर्व-जन्म के गीदड़, जरख की योनि से आया है। यदि मांसाहारी है तो सिंह, चीता, गिद्ध आदि मांसाहारी योनि से आया होगा। हिंसा, मारधाड़ झगड़े करने की आदत वाला है तो निश्चित ही हिंसक पशु योनि से आया होगा। यदि अत्यधिक कामुक है तो चिड़े-चिडिय़ा आदि से। यह कैसे संभव है? योंकि पशु-पक्षी की योनियाँ तो केवल भोग-योनियाँ हैं। मनुष्य की भाँति कर्म परिणाम से भावी जन्म को प्रभावित करने वाली नहीं।
समाधान: आपका यह कथन ठीक है कि मात्र मनुष्य-योनि में ही नयेकर्म किए जा सकते हैं, इतर-योनियों में नहीं। आपने यह भी ठीक कहा कि मनुष्य-योनि में फल-भोग होता है, तथा इतर-योनियों में भी फल-भोग होता है। आपके वायों से यह भी स्पष्ट ही है कि ‘कर्म’ व ‘फल-भोग’ ये भिन्न-भिन्न बातें हैं। ‘कर्म’ व ‘फल-भोग’ में या भिन्नताएँ हैं यह स्पष्ट होना भी आवश्यक है।
‘कर्म’ से कर्माशय (भाग्य) बनता चढ़ता है, किन्तु ‘फल-भोग’ से कर्माशय (भाग्य) क्षीण होता-घटता है। ‘कर्म’ से कर्माशय (भाग्य) घटता नहीं है और ‘फलभोग’ से कर्माशय (भाग्य) बनता बढ़ता नहीं है। ‘कर्म’ मात्र मनुष्य-योनि में होते हैं, इतर-योनियों में नहीं, जबकि ‘फल-भोग’ मनुष्य-योनि में भी होता है और इतर योनियों में भी। इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि कर्माशय (भाग्य) का बनना-बढऩा मात्र मनुष्य-योनि में होता है, इतर-योनियों में नहीं, और कर्माशय (भाग्य) का घटना मनुष्ययोनि में भी होता है व इतर-योनियों में भी होता है।अब एक बात और समझने योग्य है। ‘कर्म’ से जहाँ कर्माशय बनता है वहाँ ‘कर्म’ से ‘वासना-संस्कार’ भी बनते हैं। जिस भावना-कामना-आवेग से युक्त होकर कर्म किया गया वह भावना-कामना-आवेग और पुष्ट-दृढ़ होता है। अत: ‘कर्म’ से दो बातें होती हैं पहला- कर्माशय (धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य) दूसरा - वासना-संस्कार (अच्छे-बुरे) बनते हैं। अपने जो क्रूर,क्रोधी, मांसाहारी, हिंसक, कामुक आदि स्वभाव लिखे हैं वे ‘वासनास ंस्कार’ के कारण से होते हैं, न कि ‘कर्माशय’ के कारण से दूसरी बात समझने योग्य यह है कि वासना-संस्कार जहाँ ‘कर्म’ से बनते हैं वहाँ ‘फलभो ग’ से भी बनते हैं। ‘फल-भोग’ के समय हम जिस भावना-कामना-आवेग से युक्त होते हैं वह भावना-कामना-आवेग ‘फल-भोग’ से और पुष्टदृढ़ होता है। आपने यह तो माना ही है कि इतर योनियों में ‘फल-भोग’ होता है। जब इतर-योनियों में ‘फल-भोग’ होता है तो उनमें ‘वासना-संस्कार’ भी बनते व दृढ़ होते हैं यह मानना उचित है। इतर-योनियों में जो क्रूरता, क्रोध, कामुकता, आलस्य, ईष्र्या-द्वेष, राग आदि देखा जाता है, उन्हें करते हुए ‘कर्माशय’ (भाग्य, पाप-पुण्य) तो नहीं बनता पर ‘वासना-संस्कार’ तो बनते हैं, उन-उन भावनाओं-आवेगों का संस्कार तो मन पर पड़ता ही है। इस ‘वासना-संस्कार’ से युक्त मन के साथ जब आत्मा मनुष्य जन्म पाता है तो उसमें समय-समय पर विभिन्न कारणों निमिाों/ से ये क्रोधादि की न्यूनाधिक स्थिति बनती रहती है। किसी मनुष्य में जो क्रोधादि की अधिकता देखी जाती है वह इतर-योनियों में मन पर पड़े ‘वासना-संस्कार’ के कारण भी हो सकती है और पूर्व मनुष्य-जन्म में मन पर पड़े ‘वासना-संस्कार’ के कारण भी हो सकती है। इतर योनियों में ‘फल-भोग’ से ‘कर्माशय’ (पाप) तो क्षीण होता है, किन्तु ‘वासना-संस्कार’ क्षीण नहीं होते। ‘वासना-संस्कार’ का क्षय-नाशतोमात्र मनुष्य योनि में योग-साधना करने (वेदोक्त-जीवन-जीने) से ही
होता है। इसीलिए मनुष्य-योनि से ही मुक्ति में जाया जा सकता है, इतरयोनियो ं से नहीं। किसी ‘कर्म’ को करने से दो चीजें बनती हैं ‘कर्माशय’ व ‘वासनास ंस्कार’। ये दोनों परस्पर सबद्ध होते हुए भी भिन्न-भिन्न हैं। दोनों का क्षय भिन्न-भिन्न उपायों से होता है। ‘कर्माशय’ मात्र ‘कर्म’ से बनता है, ‘फल भोग’ से नहीं। ‘वासना-संस्कार’ ‘कर्म’ से भी बनते हैं व ‘फलभोग’ से भी। ‘कर्माशय’ का क्षय मनुष्य-योनि व इतर-योनि दोनों में ‘फल-भोग’ से होता है और ‘वासना-संस्कार’ का क्षय मात्र मनुष्य-योनि में हो सकता है, इतर-योनि मै नहीं